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मख़्मूर सईदी |
2011 का आख़िरी पोस्ट। आज साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित
मख़्मूर सईदी (31 दिसम्बर 1934-2 मार्च 2010) की जन्मतिथि है। मख़्मूर सईदी (सुल्तान मोहम्मद खाँ) उर्दू
अदब के महत्वपूर्ण शायरों में शुमार किए जाते हैं। उनकी शायरी की ख़ासियत ‘मधुरतम सुख’ और ‘क्रुरतम दुख’ का मिलाप है। मुहब्बत की तलाश और एक ठोस आत्मविश्वास की गहराई एक साथ। पेश
है उनकी कुछ ग़ज़लें, इस उम्मीद के साथ कि आने वाला वर्ष इस वर्ष से
बेहतर होगा। नए वर्ष के लिए ढ़ेर सारी शुभकामनाओं सहित : बीइंग पोएट
1.
कितनी दीवारें उठी हैं एक घर के दर्मियाँ
घर कहीं
गुम हो गया दीवारो-दर के दर्मियाँ
कौन अब इस शहर में किसकी ख़बरगीरी करे ?
हर कोई
गुम इक हुजूमे-बेख़बर के दर्मियाँ
जगमगायेगा मेरी पहचान बन कर मुद्दतों
एक लम्हा
अनगिनत शामो-सहर के दर्मियाँ
एक साअत थी कि सदियों तक सफ़र करती रही
कुछ ज़माने
थे कि गुज़रे लम्हे भर के दर्मियाँ
वार वो करते रहेंगे, ज़ख़्म हम खाते रहें
है यही
रिश्ता पुराना संगो-सर के दर्मियाँ
क्या कहें हर देखने वाले को आख़िर चुप लगी
गुम था
मंज़र इख़्तिलाफ़ाते-नज़र के दर्मियाँ
किस की आहट पर अंधेरों के कदम बढ़ते गये ?
रहनुमा
था कौन इस अंधे सफ़र के दर्मियाँ
कुछ अंधेरा-सा, उजालों से गले मिलता हुआ
हमने इक
मंज़र बनाया ख़ैरो-शर के दर्मियाँ
बस्तियाँ ‘मख़्मूर’ यूँ उजड़ी कि सहरा हो गईं
फ़ासिले
बढ़ने लगे जब घर से घर के दर्मियाँ
2.
हर दरीचे
में मेरे क़त्ल का मंज़र होगा
शाम होगी
तो तमाशा यही घर-घर होगा
पल की दहलीज प’ गिर जाऊँगा बेसुध होकर
बोझ सदियों
की थकन का मेरे सर पर होगा
मैं भी इस जिस्म हूँ साया तो नहीं हूँ तेरा
क्यों तेरे
हिज़्र में जीना मुझे दूभर होगा
अपनी ही आँच में पिघला हुआ चाँदी का बदन
सरहद-ए-लम्स
तक आते हुए पत्थर होगा
लोग इस तरह तो शक्लें न बदलते होंगे
आईना अब
उसे देखेगा तो शशदर होगा
सर पटकते हैं बगुले वही मौजों की तरह
अब जो सहरा
है किसी दिन ये समंदर होगा
दश्ते-तदबीर में जो ख़ाक-ब-सर है ‘मख़्मूर’
हो न हो
मेरा ही आवारा मुक़द्दर होगा
3.
चल पड़े
हैं तो कहीं जा के ठहरना होगा
ये तमाशा
भी किसी दिन हमें करना होगा
रेत का ढेर थे हम, सोच लिया था हम ने
जब हवा
तज़ चलेगी तो बिखरना होगा
हर नए मोड़ प' ये सोच क़दम रोकेगी
जाने अब
कौन सी राहों से गुज़रना होगा
ले के उस पार न जाएगी जुदा राह कोई
भीड़ के
साथ ही दलदल में उतरना होगा
ज़िन्दगी ख़ुद ही इक आज़ार है जिस्मो-जाँ का
जीने वालों
को इसी रोग में मरना होगा
क़ातिले-शहर के मुख़बिर दरो-दीवार भी हैं
अब सितमगर
उसे कहते हुए डरना होगा
आए हो उसकी अदालत में तो 'मख़्मूर' तुम्हें
अब किसी
जुर्म का इक़रार तो करना होगा
4.
वो हमसे
ख़फ़ा था मगर इतना भी नहीं था
यूँ मिल
के बिछड़ जाएँ, कुछ ऎसा भी नहीं था
क्या दिल से मिटे अब ख़लिशे-तर्के-ताल्लुक़
कर गुज़रे
वो हम जो कभी सोचा भी नहीं था
रस्ते से पलट आए हैं हम किसलिए आख़िर
उससे न
मिलेंगे ये इरादा भी नहीं था
कुछ, हम भी अब इस दर्द से मानूस बहुत हैं
कुछ, दर्दे-जुदाई का मदावा
भी नहीं था
सर फोड़ के मर जाएँ, यही राहे-मफ़र थी
दीवार में
दर क्या कि दरीचा भी नहीं था
दिल ख़ून हुआ और ये आँखें न हुईं नम
सच है, हमे रोने का सलीक़ा भी
नहीं था
इक शख़्स की आँखों में बसा रहता है 'मख़्मूर'
बरसों से
जिसे मैंने तो देखा भी नहीं था
5.
सर पर जो
सायबाँ थे पिघलते हैं धूप में
सब दम-ब-ख़ुद
खड़े हुए जलते हैं धूप में
पहचानना किसी का किसी को, कठिन हुआ
चेहरे हज़ार
रंग बदलते हैं धूप में
बादल जो हमसफ़र थे कहाँ खो गए कि हम
तन्हा सुलगती
रेत प' जलते
हैं धूप में
सूरज का क़हर टूट पड़ा है ज़मीन पर
मंज़र जो
आसपास थे जलते हैं धूप में
पत्ते हिलें तो शाखों से चिंगारियाँ उड़ें
सर सब्ज़
पेड़ आग उगलते हैं धूप में
'मख़्मूर' हम को साए-ए-अब्रे-रवाँ से क्या
सूरजमुखी
के फूल हैं, पलते हैं धूप में
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