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केदारनाथ अग्रवाल |
आज प्रगतिशील काव्य-धारा के प्रमुख कवि केदारनाथ अग्रवाल (1 अप्रैल 1911 – 22 जून 2000) की
जन्मतिथि है। उनकी लिखी "हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ"
कविता आज भी झूमने पर मजबूर कर देती है। वैसे केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं का अनुवाद
रूसी, जर्मन, चेक और अंग्रेज़ी
में भी हुआ है। उनके कविता-संग्रह 'फूल नहीं, रंग बोलते हैं', सोवियतलैंड नेहरू पुरस्कार से
सम्मानित हो चुका है। इस अवसर पर प्रस्तुत हैं कुछ कविताएँ : बीइंग पोएट
आज नदी बिलकुल
उदास थी
आज नदी बिलकुल उदास थी।
सोई थी अपने पानी में,
उसके दर्पण पर-
बादल का वस्त्र पडा था।
मैंने उसको नहीं जगाया,
दबे पांव घर वापस आया।
सोई थी अपने पानी में,
उसके दर्पण पर-
बादल का वस्त्र पडा था।
मैंने उसको नहीं जगाया,
दबे पांव घर वापस आया।
ओस की बूंद कहती
है
ओस-बूंद कहती है;
लिख दूं
नव-गुलाब पर मन की बात।
कवि कहता है : मैं भी लिख दूं
प्रिय शब्दों में मन की बात॥
ओस-बूंद लिख सकी नहीं कुछ
नव-गुलाब हो गया मलीन।
पर कवि ने लिख दिया ओस से
नव-गुलाब पर काव्य नवीन॥
नव-गुलाब पर मन की बात।
कवि कहता है : मैं भी लिख दूं
प्रिय शब्दों में मन की बात॥
ओस-बूंद लिख सकी नहीं कुछ
नव-गुलाब हो गया मलीन।
पर कवि ने लिख दिया ओस से
नव-गुलाब पर काव्य नवीन॥
और का और मेरा
दिन
दिन है
किसी और का
सोना का हिरन,
मेरा है
भैंस की खाल का
मरा दिन।
किसी और का
सोना का हिरन,
मेरा है
भैंस की खाल का
मरा दिन।
यही कहता है
वृद्ध रामदहिन
यही कहती है
उसकी धरैतिन,
वृद्ध रामदहिन
यही कहती है
उसकी धरैतिन,
जब से
चल बसा
उनका लाड़ला।
चल बसा
उनका लाड़ला।
हम और सड़कें
सूर्यास्त मे समा गयीं
सूर्योदय की सड़कें,
जिन पर चले हम
तमाम दिन सिर और सीना ताने,
महाकाश को भी वशवर्ती बनाने,
भूमि का दायित्व
उत्क्रांति से निभाने,
और हम
अब रात मे समा गये,
स्वप्न की देख-रेख में
सुबह की खोयी सड़कों का
जी-जान से पता लगाने
वह चिड़िया जो
वह चिड़िया जो-
चोंच मार कर
दूध-भरे जुंडी के दाने
रुचि से, रस से खा लेती है
वह छोटी संतोषी चिड़िया
नीले पंखों वाली मैं हूँ
मुझे अन्न से बहुत प्यार है।
वह चिड़िया जो-
कंठ खोल कर
बूढ़े वन-बाबा के खातिर
रस उँडेल कर गा लेती है
वह छोटी मुँह बोली चिड़िया
नीले पंखों वाली मैं हूँ
मुझे विजन से बहुत प्यार है।
कंठ खोल कर
बूढ़े वन-बाबा के खातिर
रस उँडेल कर गा लेती है
वह छोटी मुँह बोली चिड़िया
नीले पंखों वाली मैं हूँ
मुझे विजन से बहुत प्यार है।
वह चिड़िया जो-
चोंच मार कर
चढ़ी नदी का दिल टटोल कर
जल का मोती ले जाती है
वह छोटी गरबीली चिड़िया
नीले पंखों वाली मैं हूँ
मुझे नदी से बहुत प्यार है।
चोंच मार कर
चढ़ी नदी का दिल टटोल कर
जल का मोती ले जाती है
वह छोटी गरबीली चिड़िया
नीले पंखों वाली मैं हूँ
मुझे नदी से बहुत प्यार है।
जो जीवन की धूल चाट कर बड़ा हुआ है
जो जीवन की धूल चाट कर बड़ा हुआ है
तूफ़ानों से लड़ा और फिर खड़ा हुआ है
जिसने सोने को खोदा लोहा मोड़ा है
जो रवि के रथ का घोड़ा है
वह जन मारे नहीं मरेगा
नहीं मरेगा
जो जीवन की आग जला कर आग बना है
फौलादी पंजे फैलाए नाग बना है
जिसने शोषण को तोड़ा शासन मोड़ा है
जो युग के रथ का घोड़ा है
वह जन मारे नहीं मरेगा
नहीं मरेगा
फौलादी पंजे फैलाए नाग बना है
जिसने शोषण को तोड़ा शासन मोड़ा है
जो युग के रथ का घोड़ा है
वह जन मारे नहीं मरेगा
नहीं मरेगा
बसंती हवा
हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ!
वही हाँ, वही जो युगों से गगन को
बिना कष्ट-श्रम के सम्हाले हुए हूँ;
हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ।
वही हाँ, वही जो धरा का बसन्ती
सुसंगीत मीठा गुँजाती फिरी हूँ;
हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ।
वही हाँ, वही, जो सभी प्राणियों को
पिला प्रेम-आसव जिलाए हुए हूँ,
हवा हूँ, हवा मैं बसंती हवा हूँ।
कसम रूप की है, कसम प्रेम की है,
कसम इस हृदय की, सुनो बात मेरी
अनोखी हवा हूँ, बड़ी बावली हूँ!
बड़ी मस्तमौला, नहीं कुछ फिकर है,
बड़ी ही निडर हूँ, जिधर चाहती हूँ,
उधर घूमती हूँ, मुसाफ़िर अजब हूँ!
न घर-बार मेरा, न उद्देश्य मेरा,
न इच्छा किसी की, न आशा किसी की,
न प्रेमी न दुश्मन,
जिधर चाहती हूँ उधर घूमती हूँ!
हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ।
जहाँ से चली मैं,
जहाँ को गई मैं
शहर, गाँव, बस्ती,
नदी, रेत, निर्जन, हरे खेत, पोखर,
झुलाती चली मैं, झुमाती चली मैं,
हवा हूँ, हवा, मै बसंती हवा हूँ।
शहर, गाँव, बस्ती,
नदी, रेत, निर्जन, हरे खेत, पोखर,
झुलाती चली मैं, झुमाती चली मैं,
हवा हूँ, हवा, मै बसंती हवा हूँ।
चढ़ी पेड़ महुआ, थपाथप
मचाया,
गिरी धम्म से फिर, चढ़ी आम ऊपर
उसे भी झकोरा, किया कान में 'कू',
उतर कर भगी मैं हरे खेत पहुँची
वहाँ गेहुँओं में लहर खूब मारी,
पहर दो पहर क्या, अनेकों पहर तक
इसी में रही मैं।
खड़ी देख अलसी लिए शीश कलसी,
मुझे खूब सूझी!
हिलाया-झुलाया, गिरी पर न कलसी!
इसी हार को पा,
हिलाई न सरसों, झुलाई न सरसों,
मज़ा आ गया तब,
न सुध-बुध रही कुछ,
बसन्ती नवेली भरे गात में थी!
हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ!
गिरी धम्म से फिर, चढ़ी आम ऊपर
उसे भी झकोरा, किया कान में 'कू',
उतर कर भगी मैं हरे खेत पहुँची
वहाँ गेहुँओं में लहर खूब मारी,
पहर दो पहर क्या, अनेकों पहर तक
इसी में रही मैं।
खड़ी देख अलसी लिए शीश कलसी,
मुझे खूब सूझी!
हिलाया-झुलाया, गिरी पर न कलसी!
इसी हार को पा,
हिलाई न सरसों, झुलाई न सरसों,
मज़ा आ गया तब,
न सुध-बुध रही कुछ,
बसन्ती नवेली भरे गात में थी!
हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ!
मुझे देखते ही अरहरी लजाई,
मनाया-बनाया,न मानी, न मानी,
उसे भी न छोड़ा
पथिक आ रहा था, उसी पर ढकेला,
हँसी ज़ोर से मैं, हँसी सब दिशाएँ
हँसे लहलहाते हरे खेत सारे,
हँसी चमचमाती भरी धूप प्यारी,
बसंती हवा में हँसी सृष्टि सारी!
हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ।
मनाया-बनाया,न मानी, न मानी,
उसे भी न छोड़ा
पथिक आ रहा था, उसी पर ढकेला,
हँसी ज़ोर से मैं, हँसी सब दिशाएँ
हँसे लहलहाते हरे खेत सारे,
हँसी चमचमाती भरी धूप प्यारी,
बसंती हवा में हँसी सृष्टि सारी!
हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ।
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