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निदा फ़ाज़ली |
आज
मशहूर शायर और हिंदी सिनेमा के गीतकार मुक़्तदा हसन निदा
फ़ाज़ली (जन्म : 12 अक्तूबर 1938) की जन्मतिथि है। आपको 1998 में साहित्य अकादमी
पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। प्रमुख काव्य-संग्रह आँखों भर आकाश,
मौसम आते जाते हैं, खोया हुआ सा कुछ, लफ़्ज़ों के फूल, मोर नाच, आँख
और ख़्वाब के दरमियाँ, सफ़र में धूप तो होगी हैं। इस मौक़े पर
पेश हैं कुछ ग़ज़लें : बीइंग पोएट
1.
जहाँ न तेरी महक हो उधर न
जाऊँ मैं
मेरी सरिश्त सफ़र है गुज़र न जाऊँ मैं
मेरी सरिश्त सफ़र है गुज़र न जाऊँ मैं
मेरे बदन में खुले जंगलों
की मिट्टी है
मुझे सम्भाल के रखना बिखर न जाऊँ मैं
मुझे सम्भाल के रखना बिखर न जाऊँ मैं
मेरे मिज़ाज में बे-मानी
उलझनें हैं बहुत
मुझे उधर से बुलाना जिधर न जाऊँ मैं
मुझे उधर से बुलाना जिधर न जाऊँ मैं
कहीं पुकार न ले गहरी
वादियों का सबूत
किसी मक़ाम पे आकर ठहर न जाऊँ मैं
किसी मक़ाम पे आकर ठहर न जाऊँ मैं
न जाने कौन से लम्हे की
बद-दुआ है ये
क़रीब घर के रहूँ और घर न जाऊँ मैं
क़रीब घर के रहूँ और घर न जाऊँ मैं
2.
ज़हानतों को कहाँ कर्ब से
फ़रार मिला
जिसे निगाह मिली उसको इंतज़ार मिला
जिसे निगाह मिली उसको इंतज़ार मिला
वो कोई राह का पत्थर हो या
हसीं मंज़र
जहाँ से रास्ता ठहरा वहीं मज़ार मिला
जहाँ से रास्ता ठहरा वहीं मज़ार मिला
कोई पुकार रहा था खुली
फ़िज़ाओं से
नज़र उठाई तो चारो तरफ़ हिसार मिला
नज़र उठाई तो चारो तरफ़ हिसार मिला
हर एक साँस न जाने थी
जुस्तजू किसकी
हर एक दयार मुसाफ़िर को बेदयार मिला
हर एक दयार मुसाफ़िर को बेदयार मिला
ये शहर है कि नुमाइश लगी
हुई है कोई
जो आदमी भी मिला बनके इश्तहार मिला
जो आदमी भी मिला बनके इश्तहार मिला
3.
चांद से फूल से या मेरी
ज़ुबाँ से सुनिए
हर तरफ आपका क़िस्सा हैं जहाँ से सुनिए
हर तरफ आपका क़िस्सा हैं जहाँ से सुनिए
सबको आता नहीं दुनिया को
सता कर जीना
ज़िन्दगी क्या है मुहब्बत की ज़बां से सुनिए
ज़िन्दगी क्या है मुहब्बत की ज़बां से सुनिए
क्या ज़रूरी है कि हर
पर्दा उठाया जाए
मेरे हालात भी अपने ही मकाँ से सुनिए
मेरे हालात भी अपने ही मकाँ से सुनिए
मेरी आवाज़ ही पर्दा है
मेरे चेहरे का
मैं हूँ ख़ामोश जहाँ, मुझको वहाँ से सुनिए
मैं हूँ ख़ामोश जहाँ, मुझको वहाँ से सुनिए
कौन पढ़ सकता हैं पानी पे
लिखी तहरीरें
किसने क्या लिक्ख़ा हैं ये आब-ए-रवाँ से सुनिए
किसने क्या लिक्ख़ा हैं ये आब-ए-रवाँ से सुनिए
चांद में कैसे हुई क़ैद
किसी घर की ख़ुशी
ये कहानी किसी मस्ज़िद की अज़ाँ से सुनिए
ये कहानी किसी मस्ज़िद की अज़ाँ से सुनिए
4.
देखा हुआ सा कुछ है तो
सोचा हुआ सा कुछ
हर वक़्त मेरे साथ है उलझा हुआ सा कुछ
हर वक़्त मेरे साथ है उलझा हुआ सा कुछ
होता है यूँ भी रास्ता
खुलता नहीं कहीं
जंगल-सा फैल जाता है खोया हुआ सा कुछ
जंगल-सा फैल जाता है खोया हुआ सा कुछ
साहिल की गिली रेत पर
बच्चों के खेल-सा
हर लम्हा मुझ में बनता बिखरता हुआ सा कुछ
हर लम्हा मुझ में बनता बिखरता हुआ सा कुछ
फ़ुर्सत ने आज घर को सजाया
कुछ इस तरह
हर शय से मुस्कुराता है रोता हुआ सा कुछ
हर शय से मुस्कुराता है रोता हुआ सा कुछ
धुँधली सी एक याद किसी
क़ब्र का दिया
और मेरे आस-पास चमकता हुआ सा कुछ
और मेरे आस-पास चमकता हुआ सा कुछ
5.
बात कम कीजे ज़ेहानत को
छुपाए रहिए
अजनबी शहर है ये, दोस्त बनाए रहिए
अजनबी शहर है ये, दोस्त बनाए रहिए
दुश्मनी लाख सही,
ख़त्म न कीजे रिश्ता
दिल मिले या न मिले हाथ मिलाए रहिए
दिल मिले या न मिले हाथ मिलाए रहिए
ये तो चेहरे की शबाहत हुई
तक़दीर नहीं
इस पे कुछ रंग अभी और चढ़ाए रहिए
इस पे कुछ रंग अभी और चढ़ाए रहिए
ग़म है आवारा अकेले में
भटक जाता है
जिस जगह रहिए वहाँ मिलते मिलाते रहिए
जिस जगह रहिए वहाँ मिलते मिलाते रहिए
कोई आवाज़ तो जंगल में
दिखाए रस्ता
अपने घर के दर-ओ-दीवार सजाए रहिए
अपने घर के दर-ओ-दीवार सजाए रहिए
6.
मुहब्बत में वफ़ादारी से
बचिये
जहाँ तक हो अदाकारी से बचिये
जहाँ तक हो अदाकारी से बचिये
हर एक सूरत भली लगती है
कुछ दिन
लहू की शोबदाकारी से बचिये
लहू की शोबदाकारी से बचिये
शराफ़त आदमियत दर्द-मन्दी
बड़े शहरों में बीमारी से बचिये
बड़े शहरों में बीमारी से बचिये
ज़रूरी क्या हर एक महफ़िल
में आना
तक़ल्लुफ़ की रवादारी से बचिये
तक़ल्लुफ़ की रवादारी से बचिये
बिना पैरों के सर चलते
नहीं हैं
बुज़ुर्गों की समझदारी से बचिये
बुज़ुर्गों की समझदारी से बचिये
7.
जाने वालों से राब्ता रखना
दोस्तो रस्म-ए-फातिहा रखना
दोस्तो रस्म-ए-फातिहा रखना
घर की तामीर चाहे जैसी हो
इसमें रोने की कुछ जगह रखना
इसमें रोने की कुछ जगह रखना
मस्जिदें हैं नमाजियों के
लिए
अपने घर में कहीं खुदा रखना
अपने घर में कहीं खुदा रखना
जिस्म में फैलने लगा है
शहर
अपनी तन्हाईयाँ बचा रखना
अपनी तन्हाईयाँ बचा रखना
उमर करने को है पचास को
पार
कौन है किस जगह पता रखना
कौन है किस जगह पता रखना
8.
हर घड़ी ख़ुद से उलझना है
मुक़द्दर मेरा
मैं ही कश्ती हूँ मुझी में है समंदर मेरा
मैं ही कश्ती हूँ मुझी में है समंदर मेरा
किससे पूछूँ कि कहाँ गुम
हूँ बरसों से
हर जगह ढूँढता फिरता है मुझे घर मेरा
हर जगह ढूँढता फिरता है मुझे घर मेरा
एक से हो गए मौसमों के
चेहरे सारे
मेरी आँखों से कहीं खो गया मंज़र मेरा
मेरी आँखों से कहीं खो गया मंज़र मेरा
मुद्दतें बीत गईं ख़्वाब
सुहाना देखे
जागता रहता है हर नींद में बिस्तर मेरा
जागता रहता है हर नींद में बिस्तर मेरा
आईना देखके निकला था मैं
घर से बाहर
आज तक हाथ में महफ़ूज़ है पत्थर मेरा
आज तक हाथ में महफ़ूज़ है पत्थर मेरा
9.
दिन सलीक़े से उगा रात
ठिकाने से रही
दोस्ती अपनी भी कुछ रोज़ ज़माने से रही
दोस्ती अपनी भी कुछ रोज़ ज़माने से रही
चंद लम्हों को ही बनती हैं
मुसव्विर आँखें
ज़िन्दगी रोज़ तो तस्वीर बनाने से रही
ज़िन्दगी रोज़ तो तस्वीर बनाने से रही
इस अँधेरे में तो ठोकर ही
उजाला देगी
रात जंगल में कोई शम्मा जलाने से रही
रात जंगल में कोई शम्मा जलाने से रही
फ़ासला चाँद बना देता है
हर पत्थर को
दूर की रौशनी नज़दीक तो आने से रही
दूर की रौशनी नज़दीक तो आने से रही
शहर में सब को कहाँ मिलती
है रोने की फ़ुरसत
अपनी इज़्ज़त भी यहाँ हँसने-हँसाने से रही
अपनी इज़्ज़त भी यहाँ हँसने-हँसाने से रही
10.
ये दिल कुटिया है संतों की
यहाँ राजा भिकारी क्या
वो हर दीदार में ज़रदार है गोटा किनारी क्या
वो हर दीदार में ज़रदार है गोटा किनारी क्या
ये काटे से नहीं कटते ये
बांटे से नहीं बंटते
नदी के पानियों के सामने आरी कटारी क्या
नदी के पानियों के सामने आरी कटारी क्या
उसी के चलने-फिरने,
हंसने-रोने की हैं तस्वीरें
घटा क्या, चाँद क्या, संगीत क्या, बाद-ए-बहारी क्या
घटा क्या, चाँद क्या, संगीत क्या, बाद-ए-बहारी क्या
किसी घर के किसी बुझते हुए
चूल्हे में ढूँढ उसको
जो चोटी और दाढ़ी में रहे वो दीनदारी क्या
जो चोटी और दाढ़ी में रहे वो दीनदारी क्या
हमारा मीर जी से
मुत्तफ़िक़ होना है नामुमकिन
उठाना है जो पत्थर इश्क़ का तो हल्का-भारी क्या
उठाना है जो पत्थर इश्क़ का तो हल्का-भारी क्या
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