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'नासिर' काज़मी |
आज उर्दू के मशहूर शायर ‘नासिर’ काज़मी
(08 दिसंबर 1925 - 02 मार्च 1972) की जन्मतिथि है। इस मौक़े पर पेश हैं कुछ ग़ज़लें : बीइंग पोएट
1.
दिल धड़कने का सबब याद आया
वो तेरी याद थी अब याद आया
वो तेरी याद थी अब याद आया
आज मुश्किल था सम्भलना ऐ
दोस्त
तू मुसीबत में अजब याद आया
तू मुसीबत में अजब याद आया
दिन गुज़ारा था बड़ी
मुश्किल से
फिर तेरा वादा-ए-शब याद आया
फिर तेरा वादा-ए-शब याद आया
तेरा भूला हुआ
पैमान-ए-वफ़ा
मर रहेंगे अगर अब याद आया
मर रहेंगे अगर अब याद आया
फिर कई लोग नज़र से गुज़रे
फिर कोई शहर-ए-तरब याद आया
फिर कोई शहर-ए-तरब याद आया
हाल-ए-दिल हम भी सुनाते
लेकिन
जब वो रुख़सत हुए तब याद आया
जब वो रुख़सत हुए तब याद आया
बैठ कर साया-ए-गुल में ‘नासिर’
हम बहुत रोये वो जब याद आया
हम बहुत रोये वो जब याद आया
2.
अपनी धुन में रहता हूँ
मैं भी तेरे जैसा हूँ
मैं भी तेरे जैसा हूँ
ओ पिछली रुत के साथी
अब के बरस मैं तन्हा हूँ
अब के बरस मैं तन्हा हूँ
तेरी गली में सारा दिन
दुख के कंकर चुनता हूँ
दुख के कंकर चुनता हूँ
मुझ से आँख मिलाये कौन
मैं तेरा आईना हूँ
मैं तेरा आईना हूँ
मेरा दिया जलाये कौन
मैं तेरा ख़ाली कमरा हूँ
मैं तेरा ख़ाली कमरा हूँ
तू जीवन की भरी गली
मैं जंगल का रस्ता हूँ
मैं जंगल का रस्ता हूँ
अपनी लहर है अपना रोग
दरिया हूँ और प्यासा हूँ
दरिया हूँ और प्यासा हूँ
आती रुत मुझे रोयेगी
जाती रुत का झोंका हूँ
जाती रुत का झोंका हूँ
3.
किसे देखें कहाँ देखा न
जाये
वो देखा है जहाँ देखा न जाये
वो देखा है जहाँ देखा न जाये
मेरी बरबादियों पर रोने
वाले
तुझे महव-ए-फुगाँ देखा न जाये
तुझे महव-ए-फुगाँ देखा न जाये
सफ़र है और गुरबत का सफ़र
है
गम-ए-सद-कारवाँ देखा न जाये
गम-ए-सद-कारवाँ देखा न जाये
कहीं आग और कहीं लाशों के
अंबार
बस ऐ दौर-ए-ज़मीँ देखा न जाये
बस ऐ दौर-ए-ज़मीँ देखा न जाये
दर-ओ-दीवार वीराँ,
शमा मद्धम
शब-ओ-गम का सामाँ देखा न जाये
शब-ओ-गम का सामाँ देखा न जाये
पुरानी सुहब्बतें याद आती
है
चरागों का धुआँ देखा न जाये
चरागों का धुआँ देखा न जाये
भरी बरसात खाली जा रही है
सराबर-ए-रवाँ देखा न जाये
सराबर-ए-रवाँ देखा न जाये
कहीं तुम और कहीं हम,
क्या गज़ब है
फिराक-ए-जिस्म-ओ-जाँ देखा न जाये
फिराक-ए-जिस्म-ओ-जाँ देखा न जाये
वही जो हासिल-ए-हस्ती है ‘नासिर’
उसी को मेहरबाँ देखा न जाये
उसी को मेहरबाँ देखा न जाये
4.
कौन इस राह से गुज़रता है
दिल यूँ ही इंतज़ार करता है
दिल यूँ ही इंतज़ार करता है
देख कर भी न देखने वाले
दिल तुझे देख-देख डरता है
दिल तुझे देख-देख डरता है
शहर-ए-गुल में कटी है सारी
रात
देखिये दिन कहाँ गुज़रता है
देखिये दिन कहाँ गुज़रता है
ध्यान की सीढ़ियों पे
पिछले पहर
कोई चुपके से पाँव धरता है
कोई चुपके से पाँव धरता है
दिल तो मेरा उदास है ‘नासिर’
शहर क्यों सायँ-सायँ करता है
शहर क्यों सायँ-सायँ करता है
5.
नीयत-ए-शौक़ भर न जाये
कहीं
तू भी दिल से उतर न जाये कहीं
तू भी दिल से उतर न जाये कहीं
आज देखा है तुझे देर के
बाद
आज का दिन गुज़र न जाये कहीं
आज का दिन गुज़र न जाये कहीं
न मिला कर उदास लोगों से
हुस्न तेरा बिखर न जाये कहीं
हुस्न तेरा बिखर न जाये कहीं
आरज़ू है के तू यहाँ आये
और फिर उम्र भर न जाये कहीं
और फिर उम्र भर न जाये कहीं
जी जलाता हूँ और ये सोचता
हूँ
रायेगाँ ये हुनर न जाये कहीं
रायेगाँ ये हुनर न जाये कहीं
आओ कुछ देर रो ही लें ‘नासिर’
फिर ये दरिया उतर न जाये कहीं
फिर ये दरिया उतर न जाये कहीं
6.
करता उसे बेकरार कुछ देर
होता अगर इख्तियार कुछ देर
होता अगर इख्तियार कुछ देर
क्या रोयें फ़रेब-ए-आसमाँ
को
अपना नहीं ऐतबार कुछ देर
अपना नहीं ऐतबार कुछ देर
आँखों में कटी पहाड़ सी
रात
सो जा दिल-ए-बेक़रार कुछ देर
सो जा दिल-ए-बेक़रार कुछ देर
ऐ शहर-ए-तरब को जाने वालों
करना मेरा इंतजार कुछ देर
करना मेरा इंतजार कुछ देर
बेकैफी-ए-रोज़-ओ-शब मुसलसल
सरमस्ती-ए-इंतज़ार कुछ देर
सरमस्ती-ए-इंतज़ार कुछ देर
तकलीफ-ए-गम-ए-फिराक दायम
तकरीब-ए-विसाल-ए-यार कुछ देर
तकरीब-ए-विसाल-ए-यार कुछ देर
ये गुंचा-ओ-गुल हैं सब
मुसाफिर
है काफिला-ए-बहार कुछ देर
है काफिला-ए-बहार कुछ देर
दुनिया तो सदा रहेगी ‘नासिर’
हम लोग हैं यादगार कुछ देर
हम लोग हैं यादगार कुछ देर
7.
तेरे मिलने को बेकल हो गये
हैं
मगर ये लोग पागल हो गये हैं
मगर ये लोग पागल हो गये हैं
बहारें लेके आये थे जहाँ
तुम
वो घर सुनसान जंगल हो गये हैं
वो घर सुनसान जंगल हो गये हैं
यहाँ तक बढ़ गये
आलाम-ए-हस्ती
कि दिल के हौसले शल हो गये हैं
कि दिल के हौसले शल हो गये हैं
कहाँ तक ताब लाये नातवाँ
दिल
कि सदमे अब मुसलसल हो गये हैं
कि सदमे अब मुसलसल हो गये हैं
निगाह-ए-यास को नींद आ रही
है
मुसर्दा पुरअश्क बोझल हो गये हैं
मुसर्दा पुरअश्क बोझल हो गये हैं
उन्हें सदियों न भूलेगा
ज़माना
यहाँ जो हादसे कल हो गये हैं
यहाँ जो हादसे कल हो गये हैं
जिन्हें हम देख कर जीते थे
‘नासिर’
वो लोग आँखों से ओझल हो गये हैं
वो लोग आँखों से ओझल हो गये हैं
8.
तेरे ख़याल से लौ दे उठी
है तनहाई
शब-ए-फ़िराक़ है या तेरी जल्वाआराई
शब-ए-फ़िराक़ है या तेरी जल्वाआराई
तू किस ख़याल में है ऐ
मंज़िलों के शादाई
उन्हें भी देख जिन्हें रास्ते में नींद आई
उन्हें भी देख जिन्हें रास्ते में नींद आई
पुकार ऐ
जरस-ए-कारवाँ-ए-सुबह-ए-तरब
भटक रहे हैं अँधेरों में तेरे सौदाई
भटक रहे हैं अँधेरों में तेरे सौदाई
राह-ए-हयात में कुछ मर्हले
तो देख लिये
ये और बात तेरी आरज़ू न रास आई
ये और बात तेरी आरज़ू न रास आई
ये सानिहा भी मुहब्बत में
बारहा गुज़रा
कि उस ने हाल भी पूछा तो आँख भर आई
कि उस ने हाल भी पूछा तो आँख भर आई
फिर उस की याद में दिल
बेक़रार है ‘नासिर’
बिछड़ के जिस से हुई शहर-शहर रुसवाई
बिछड़ के जिस से हुई शहर-शहर रुसवाई
9.
ज़िन्दगी को न बना दें वो
सज़ा मेरे बाद
हौसला देना उन्हें मेरे ख़ुदा मेरे बाद
हौसला देना उन्हें मेरे ख़ुदा मेरे बाद
कौन घूंघट उठाएगा सितमगर
कह के
और फिर किस से करेंगे वो हया मेरे बाद
और फिर किस से करेंगे वो हया मेरे बाद
हाथ उठते हुए उनके न
देखेगा
किस के आने की करेंगे वो दुआ मेरे बाद
किस के आने की करेंगे वो दुआ मेरे बाद
फिर ज़माना-ए-मुहब्बत की न
पुरसिश होगी
रोएगी सिसकियाँ ले-ले के वफ़ा मेरे बाद
रोएगी सिसकियाँ ले-ले के वफ़ा मेरे बाद
वो जो कहता था कि 'नासिर' के लिए जीता हूं
उसका क्या जानिए, क्या हाल हुआ मेरे बाद
उसका क्या जानिए, क्या हाल हुआ मेरे बाद
10.
होती है तेरे नाम से वहशत कभी-कभी
बरहम हुई है यूँ भी तबीयत कभी-कभी
बरहम हुई है यूँ भी तबीयत कभी-कभी
ऐ दिल किसे नसीब ये
तौफ़ीक़-ए-इज़्तिराब
मिलती है ज़िन्दगी में ये राहत कभी-कभी
मिलती है ज़िन्दगी में ये राहत कभी-कभी
तेरे करम से ऐ
अलम-ए-हुस्न-ए-आफ़रीन
दिल बन गया है दोस्त की ख़िल्वत कभी-कभी
दिल बन गया है दोस्त की ख़िल्वत कभी-कभी
दिल को कहाँ नसीब ये
तौफ़ीक़-ए-इज़्तिराब
मिलती है ज़िन्दगी में ये राहत कभी-कभी
मिलती है ज़िन्दगी में ये राहत कभी-कभी
जोश-ए-जुनूँ में दर्द की
तुग़यानियों के साथ
अश्कों में ढल गई तेरी सूरत कभी-कभी
अश्कों में ढल गई तेरी सूरत कभी-कभी
तेरे क़रीब रह के भी दिल
मुतमईन न था
गुज़री है मुझ पे भी ये क़यामत कभी-कभी
गुज़री है मुझ पे भी ये क़यामत कभी-कभी
कुछ अपना होश था न
तुम्हारा ख़याल था
यूँ भी गुज़र गई शब-ए-फ़ुर्क़त कभी-कभी
यूँ भी गुज़र गई शब-ए-फ़ुर्क़त कभी-कभी
ऐ दोस्त हम ने
तर्क-ए-मुहब्बत के बावजूद
महसूस की है तेरी ज़रूरत कभी-कभी
महसूस की है तेरी ज़रूरत कभी-कभी
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