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मियाँ ज़फर इक़बाल |
आज पेश
हैं पाकिस्तानी शायर ‘ज़फ़र’ इक़बाल की ग़ज़लें। पेशे से पत्रकार ‘ज़फ़र’ ने ग़ज़ल की दुनिया में अपना अलग मुक़ाम बनाया है। आईए पढ़ते हैं : बीइंग पोएट
1.
ख़ामोशी
अच्छी नहीं इंकार होना चाहिए
ये तमाशा अब सरे बाज़ार होना चाहिए
ये तमाशा अब सरे बाज़ार होना चाहिए
ख़्वाब की
ताबीर पर इसरार है जिनको अभी
पहले उनको ख़्वाब से बेदार होना चाहिए
पहले उनको ख़्वाब से बेदार होना चाहिए
अब वही
करने लगे दीदार से आगे की बात
जो कभी कहते थे बस दीदार होना चाहिए
जो कभी कहते थे बस दीदार होना चाहिए
बात पूरी
है अधूरी चाहिए ऐ जान-ए-जाँ
काम आसां है इसे दुश्वार होना चाहिए
काम आसां है इसे दुश्वार होना चाहिए
दोस्ती
के नाम पर कीजे न क्यूँ कर दुश्मनी
कुछ न कुछ आख़िर तरीकेकार होना चाहिए
कुछ न कुछ आख़िर तरीकेकार होना चाहिए
झूठ बोला
है तो उस पर क़ायम भी रहो ‘ज़फ़र’
आदमी को साहिब-ए-क़िरदार होना चाहिए
आदमी को साहिब-ए-क़िरदार होना चाहिए
2.
लर्ज़िश-ए-पर्दा-ए-इज़हार
का मतलब क्या है
है ये दीवार तो दीवार का मतलब क्या है
है ये दीवार तो दीवार का मतलब क्या है
जिसका
इंकार हथेली पे लिए फिरता हूँ
जानता ही नहीं इंकार का मतलब क्या है
जानता ही नहीं इंकार का मतलब क्या है
बेचना
कुछ नहीं उसने तो ख़रीदार हैं क्यूँ
आख़िर इस गर्मी-ए-बाज़ार का मतलब क्या है
आख़िर इस गर्मी-ए-बाज़ार का मतलब क्या है
उसकी
राहों में बिखर जाए ये ख़ाक़ इस तरह चश्म
और अपने लिए दीदार का मतलब क्या है
और अपने लिए दीदार का मतलब क्या है
रब्त
बाक़ी नहीं अल्फ़ाज़-ओ-मानी में ‘ज़फ़र’
क्या कहें उसको इस प्यार का मतलब क्या है
क्या कहें उसको इस प्यार का मतलब क्या है
3.
यहाँ किसी को भी कुछ हस्ब-ए-आरज़ू न मिला
किसी को हम न मिले और हम को तू न मिला
किसी को हम न मिले और हम को तू न मिला
गिज़ाल-ए-अश्क
सर-ए-सुबह
दूब-ए-मिज़्गाँ
पर
कब अपनी आँख खुली और लहू लहू न मिला
कब अपनी आँख खुली और लहू लहू न मिला
चमकते चाँद
भी थे शहर-ए-शब के एवान में
निगार-ए-ग़म सा मगर कोई शमा-रू न मिला
निगार-ए-ग़म सा मगर कोई शमा-रू न मिला
उन्हीं
की रम्ज़ चली है गली गली में यहाँ
जिन्हें इधर से कभी इज़्न-ए-गुफ़्तगू न मिला
जिन्हें इधर से कभी इज़्न-ए-गुफ़्तगू न मिला
फिर आज
मैकदा-ए-दिल से लौट आए हैं
फिर आज हम को ठिकाने का सुबू न मिला
फिर आज हम को ठिकाने का सुबू न मिला
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