जैसे एक अबोध शिशु ‘माँ’ शब्द से शुरुआत करते हुए शब्दकोष के सारे शब्दों को अपना लेता है, वैसे ही एक चित्रकार तीन प्रमुख रंगों (लाल, हरा और नीला) से शुरू कर दुनिया के तमाम रंगों को अपनी मुट्ठी में क़ैद कर लेता है। फिर जब और जहाँ उसका मन होता है, वह उन रंगों का इन्द्रधनुष बनाता है और देखने-पढ़ने वाले, उन बिन बरसात के धरती पर उतरे इन्द्रधनुषों की माया के भीतर क़ैद हो जाते हैं। जिस घड़ी कवि-चित्रकार अमित कल्ला, चित्र उकेर रहे होते होंगे तब कविता ज़रूर उनकी कूची को ताकती होगी और जब वे शब्दों के संगत में होते होंगे तो हँसते-खेलते शोख रंग उनकी हथेलियों बीच गुदगुदी कर बैठते होंगे। गौर करने की बात यह है कि जब हम अमित के चित्रों को देख रहे होते हैं या उनकी कविता पढ़ रहे होते हैं, तो उनकी कविताएँ, शब्दों की एक रंगी चादर पर अनगिनत रंगो के छीटें की तरह लगती है और उनके चित्र-बिम्ब समंदर की गिरती-उठती लहरों की तरह कैनवस पर मचलते जान पड़ते हैं। रंगों और बिम्बों का यहीं घालमेल उनकी कविताओं का खूबसूरत वितान रचता है। इस बात का पुख्ता सबूत हैं अमित कल्ला की रंग-जनित ये छोटी-छोटी कविताएँ - विपिन चौधरी
ऐसा ही! मानो,
हर रोज़ का अनुभव हो
असंभव नहीं जहाँ
इस शिकायती मन को मनना
कुछ देखना जो
उसे कहीं ज्यादा भीतर ले जाये
हर रोज़ का अनुभव हो
असंभव नहीं जहाँ
इस शिकायती मन को मनना
कुछ देखना जो
उसे कहीं ज्यादा भीतर ले जाये
जानता हूँ
कितना कठिन होता है
लम्बी यात्राओं के बाद
पीछे को लौटना
हज़ार कायाओं की छापों से मुक्त होकर
देह का बीज और
बीज का कोष में समां जाना
कितना कठिन होता है
लम्बी यात्राओं के बाद
पीछे को लौटना
हज़ार कायाओं की छापों से मुक्त होकर
देह का बीज और
बीज का कोष में समां जाना
कितना कठिन
उस सीखे को भुलाना
सत्य के करीब होने के भय को मिटा देना
और कभी
स्वयं को उंडेलकर
"उलटबाँसी" हो जाना
उस सीखे को भुलाना
सत्य के करीब होने के भय को मिटा देना
और कभी
स्वयं को उंडेलकर
"उलटबाँसी" हो जाना
असंभव नहीं
कठिन जरुर होता है
संसार में
पदार्थ और मृत्यु के
अतिरिक्त भी कुछ देखना।
कठिन जरुर होता है
संसार में
पदार्थ और मृत्यु के
अतिरिक्त भी कुछ देखना।
किसी
औघड़ की
काली कमली ओढ़
अपनी ही देह में
अंतरध्यान हो
औघड़ की
काली कमली ओढ़
अपनी ही देह में
अंतरध्यान हो
पल-पल
कैसा सहारा देती है
कैसा सहारा देती है
मौन
के उस
सुरमई
संतुलन को
करवट-करवट।
के उस
सुरमई
संतुलन को
करवट-करवट।
कोई खलील
कोई
खलील
अराक के
जंगलों में
पश्मीना ओढे
सत्यासत्य से
जूझते
इब्राहिम के
आगमन कि प्रतीक्षा करता है
खलील
अराक के
जंगलों में
पश्मीना ओढे
सत्यासत्य से
जूझते
इब्राहिम के
आगमन कि प्रतीक्षा करता है
बिखर जाती है
सजीली फुलवारी पर
पलटकर
अंजान
बारूद के गंध सी।
सजीली फुलवारी पर
पलटकर
अंजान
बारूद के गंध सी।
साँची का सुनहरा सूरज
उत्सवी आवरणों से दूर
स्तूपों के सायों में
अपनी ही
शाखों के कन्धों पर
कश्तियाँ लादे
ब्रह्माण्ड के रहस्यों में
गोता लगाता है
स्तूपों के सायों में
अपनी ही
शाखों के कन्धों पर
कश्तियाँ लादे
ब्रह्माण्ड के रहस्यों में
गोता लगाता है
अपने
घेरे को तोड़कर
निगलता है
कई मंज़र
कहीं अधिक
गहरा
बिंदु-बिंदु
बनाता है
बिम्ब
वेदिका पर टिका
ये
साँची का
सुनहरा सूरज।
घेरे को तोड़कर
निगलता है
कई मंज़र
कहीं अधिक
गहरा
बिंदु-बिंदु
बनाता है
बिम्ब
वेदिका पर टिका
ये
साँची का
सुनहरा सूरज।
स्मृतियों की
खड़खड़ाहटों के पार
बूंद–बूंद
संवित विकल्प
खड़खड़ाहटों के पार
बूंद–बूंद
संवित विकल्प
कैसा वह
निर्धारित निर्वासन
स्वप्न से स्वप्न,
काया से काया,
भव से भव
निर्धारित निर्वासन
स्वप्न से स्वप्न,
काया से काया,
भव से भव
एकाएक
मानों
किसी
टूटते तारे का पीछा करती
रेखा की पकड।
मानों
किसी
टूटते तारे का पीछा करती
रेखा की पकड।
पार-अपार
बहते हैं रंग
दिशाएं भी
बहती हैं,
स्मृतियाँ
बूंद-बूंद
उन्ही-सी
किन्ही अल्पविरामों के
नितांत,
पार-अपार।
दिशाएं भी
बहती हैं,
स्मृतियाँ
बूंद-बूंद
उन्ही-सी
किन्ही अल्पविरामों के
नितांत,
पार-अपार।
धीरे-धीरे
ख़त्म होने लगी आकांशा
खुलने की,
आवाजों के सहारे चलने
और अपनी ह़ी चीजों को पाने की,
धीरे-धीरे
ज्यादा करीब आने लगा हूँ
सीखने लगा रुकना,
पहाड़ से उतरती
नदी को देखना,
धीरे-धीरे
समाने लगा
किन्ही निर्धारित शब्दों में
जोगी होकर डूबते–डूबते
गृहस्थी के विश्वास को
पाने लगा हूँ।
ख़त्म होने लगी आकांशा
खुलने की,
आवाजों के सहारे चलने
और अपनी ह़ी चीजों को पाने की,
धीरे-धीरे
ज्यादा करीब आने लगा हूँ
सीखने लगा रुकना,
पहाड़ से उतरती
नदी को देखना,
धीरे-धीरे
समाने लगा
किन्ही निर्धारित शब्दों में
जोगी होकर डूबते–डूबते
गृहस्थी के विश्वास को
पाने लगा हूँ।
एक सूत्र
एक सूत्र है
उसके पास
मन की कतली से काता
शब्द सूत्र
मैं सुन पाता हूँ
अनुवादों से कहीं बेहतर
उसके स्वर
अपार जल सरीखे स्वर
थिर हो जाता
उसका सजग भागीदार बन
निश्चेष्ट ही
वह
परछाइयों-सा
कोमल सूत्र।
उसके पास
मन की कतली से काता
शब्द सूत्र
मैं सुन पाता हूँ
अनुवादों से कहीं बेहतर
उसके स्वर
अपार जल सरीखे स्वर
थिर हो जाता
उसका सजग भागीदार बन
निश्चेष्ट ही
वह
परछाइयों-सा
कोमल सूत्र।
संसार में
बहुत कुछ है
जानने को
कम जटिल
कम आकस्मिक
चूके हुए
शिकारी
फिर एक नयी
कथाकथित छलांग लो
पहचान लो
इन हिरणों के रंग–ढंग
बे-फिक्र रहो
तुम्हारा जागना
निश्चित ही
आज
व्यापार नहीं है।
बहुत कुछ है
जानने को
कम जटिल
कम आकस्मिक
चूके हुए
शिकारी
फिर एक नयी
कथाकथित छलांग लो
पहचान लो
इन हिरणों के रंग–ढंग
बे-फिक्र रहो
तुम्हारा जागना
निश्चित ही
आज
व्यापार नहीं है।
चन्द्रवदनी की ओर
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