कहते हैं– प्रेम नेत्रहीन होता है, मगर आपने कभी नेत्रहीनों का प्रेम देखा
है? मैनें देखा है। दिल्ली
विश्विद्यालय मेट्रो स्टेशन के बाहर यूँ तो कई जोड़ियाँ ‘प्रेम’ के विभिन्न स्वरूप एवं ‘काम’ की अनेक अवस्थाओं को प्रदर्शित करती
अक्सर नज़र आ जाती हैं, लेकिन न
जाने क्यों उस एक जोड़ी विशेष को देख कर मेरे पाँव ठहर-से गए। वहाँ उपस्थित लोग आसपास की
दुनिया से बेख़बर उस जोड़ी को ऐसे देख रहे थे, जैसे कोई मदारी अपनी बन्दरिया का खेल
दिखा रहा हो। मैं भी उन तमाशाइयों में शामिल हो गया। पुलिस वाले, टाइम पास करते अथवा किसी के इंतज़ार में
बैठे लोग, पानी बेचने
वाला, बस स्टॉप पर बैठे लोग आदि सभी कभी
सीधी नज़र तो कभी टेढ़ी नज़र देख रहे थे। मेरी अपना सोचना है कि वहाँ उपस्थित
अधिकतम लोग कभी न कभी उस अवस्था से गुज़रे होंगे। फिर क्यों उसे गुनाह की श्रेणी
में रखने को तैयार हैं? अपनी ही
मस्ती में मस्त वह जोड़ी किसी की पुरानी याद को ताज़ा कर रही थी, तो किसी की
ताज़ी याद। मैं खड़ा-खड़ा यही सोचने लगा कि जाने मैं कब इस सुख (अगर यह सुख है) का
अनुभव प्राप्त कर सकुँगा? कुछ लोग वहाँ
ऐसे भी थे, जो अख़बार
पढ़ने में मग्न थे। इस बात से बेख़बर कि उन्होंने उसे उल्टा पकड़ रखा है। बस स्टॉप
पर रुकने वाली बसों के यात्री भी थोड़ी देर के लिए ‘मुस्कुरा’ देते अथवा ‘दंत-प्रदर्शन करते।
एक अज़ीब-सा माहौल बन रहा था।
कुत्ते-बिल्ली-गिलहरी आदि भी शांतचित्त मुद्रा में थे। कुत्ते ने दुम हिलाना बन्द
कर दिया। अब न बिल्ली को कुत्ते का डर था और न गिलहरी को बिल्ली से डरने की
आवश्यकता थी। हरे पत्ते वाले पेड़ की भूरी डालियों पर बैठी सभी चिड़ियों ने समूह-गान
बन्द करके एकटक देखना शुरू कर दिया। किसी का ध्यान भटक न जाए। अचानक आते-जाते
यात्री भी थम गए। यूँ लगने लगा जैसे बसें स्टॉप से आगे बढ़ने से कतरा रहीं हों।
तेज़ धूप मध्यम होने लगी। ऐसे लग रहा था, मानो सूरज को भी यह चिंता थी कि वह इस
दृश्य से वंचित न रह जाए। समय अपनी रफ़्तार भूल चुका था। हवाओं ने भी अपनी गति
मन्द कर ली। मेट्रो स्टेशन पर टोकन काटने वालों ने कुछ देर के लिए अपना काम छोड़
दिया। अनेकों आँखें एक ही जगह स्थिर थीं। जैसे सभी नदियाँ समन्दर की ओर चलती हैं। जिस तरह पहले-पहल टेलिविज़न स्क्रीन पर
दिखाए जाने वाले ‘रामायण’, ‘महाभारत’ आदि धारावाहिकों के ‘राम’ या ‘कृष्ण’ को देख कर
सजल आँखें योग अवस्था में चली जाती थीं। कुछ उसी तरह का महौल दिखाई देने लगा था।
प्रेम का ऐसा सीधा, सच्चा, सादा, सरल एवं सहज स्वरूप कहाँ देखने को मिलता
है? मुझे भ्रम हुआ, कहीं मैं इतिहास के पन्नों में तो नहीं
विचरण कर रहा हूँ? या फिर ‘अजंता-एलोरा’ की गुफाओं में भटक गया हूँ? कहीं मैं विदेश (जहाँ ओपेन सेक्स की
मान्यता है) भ्रमण पर तो नहीं आया हूँ? कहीं
मैं... अचानक नेत्रहीन प्रेमी-युगल उठ खड़ा हुआ। दोनों ने अपनी-अपनी छड़ी निकाली
और वे एक दूसरे का हाथ थामे चल पड़े। मैनें अपने जीवन में पहली बार किसी के चेहरे
पर ऐसी खुशी देखी थी। बस, अब सबकुछ
सामान्य हो गया। बस स्टॉप पर अब कोई बस नहीं रेंग रही थी, सब फर्राटे से निकल जाती थीं। मेट्रो
स्टेशन पर टोकन काटने का काम भी बड़ी फुर्ती से किया जा रहा था। हाँ, पुलिस वाले ज़रूर अपनी आदत से मज़बूर
वहीं खड़े हो कर ही-ही कर रहे थे। यात्रियों के पैर आगे-पीछे चल रहे थे। इंतज़ार
करने वालों से कुछ के चेहरों पर मुस्कुराहट थी और कुछ अब भी उदास थे। चिड़ियाँ
चहचहाने लगी थी। गिलहरी बिल्ली के डर से पेड़ पर चढ़ गई थी। अब बिल्ली भी कुत्ते
से ख़ौफ़ खाने लगी थी। हवाऐं फिर तेज़ हो गई। समय को जैसे अपनी रफ़्तार याद आ गई
हो। लेकिन इस बीच दोपहर का यौवन समाप्त हो चुका था। ऊपर अख़बार भी तो सीधा हो चुका
था। मैं वहाँ कुछ देर तक और ठहरा। कई जोड़ियाँ अपने-अपने काम में व्यस्त थीं। बस
स्टॉप पर बसें तो अब भी रुक रही थीं, मगर ‘मुस्कुराहट’ बिखेरने या ‘दंत-प्रदर्शन’ करने वाले यात्री अब उनमें नहीं दीख रहे
थे।
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