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डॉ. प्रभात रंजन |
आज
हिंदी के कथाकार प्रभात
रंजन (जन्म : 03 नवम्बर 1970) की
जन्मतिथि है। प्रभात रंजन के व्यक्तित्व में ‘कवि-पक्ष’ किसी पेड़ की जड़ों की तरह (ज़मीन के अंदर होने की वजह से) नहीं दिखाई देता है।
सिर्फ़ तना-डाली-पत्ते-फूल-फल (जो ज़मीन के बाहर है) की तरह हम देख पाते हैं उनका ‘कथाकार-पक्ष’। यह बात
और है कि उनके व्यक्तित्व के कई पहलू है, फिलहाल खूब सारी शुभकामनाओं
सहित, उनकी जन्मतिथि के अवसर पर प्रस्तुत है कहानी ‘मोनोक्रोम’, जो उनके पहले कहानी-संग्रह ‘जानकीपुल’ में संकलित है : बीइंग पोएट
‘अल कौसर’ के बाहर चहलकदमी करते हुए वह अब थोड़ा
उकताने लगा था।
जानबूझ
कर समय नहीं देख रहा था। समय को वह भूल जाना चाहता था। वह भूल जाना चाहता था कि
उसे यहाँ टहलते आधा घंटा हो चुका है।
...कि
साढ़े सात बज चुके हैं और बात सात बजे मिलने की थी। न चाहते हुए भी अपनी घड़ी के
नीचे डायल पर उसकी आँखें ठहर गईं।
अगर
गुज़रे बरस होते तो वह यह सोचता टहलता रहता कि वह एक बार फिर पीछे से धमधम करती
आएगी और जब तक वह उन पैरों की आवाज़ को आँखों से सही करने पीछे मुड़ेगा, कहेगी-
‘सॉरी राहुल! जैम में फँस गई थी। आय ऐम रियली सॉरी।’
और
वह बड़े नाज़ से अपना गुस्सा वापस ले लेगा।
वक़्त
पीछे छूट गया था। वक़्त पीछे छूटता जा रहा था और साथ में यह अहसास भी कि वह आएगी।
बीते दिनों की यादें ही रह जाती हैं...
और
कभी-कभी मिलने को पुराना रेस्तराँ।
उसे
अपने इस ख़याल पर हँसी आ गई। उसे ध्यान आया कि वह अक्सर सड़कों के किनारे पटरियों पर
लोगों को इसी तरह हँसते, अपने-आप से बातें करते देखता
है और सोचता है कहीं वे पागल तो नहीं है। उसने इधर-उधर देखा और आश्वस्त हुआ कि
अँधेरे में उसे कोई देख नहीं रहा है।
वह
बाहर पटरी पर एक फटा अख़बार बिछाकर बैठ गया और सामने तेज़ी से भागती गाड़ियों के
ब्रांड पहचानने का खेल खेलने लगा। बरसों पुराना खेल कि किस ब्रांड की गाड़ियाँ सड़क
पर ज़्यादा दिखती हैं। अक्सर ऊबकर वह यही खेल खेलने लगता। बरसों प्रतीक्षा ने उसे
इस खेल का आदी बना दिया था।
सामने
एक ऑटो आकर रूकी।
उसकी
आँखों में बरसों पुरानी पहचान लौट आई थी। इतनी रोशनी नहीं थी कि किसी को आसानी से
पहचाना जा सके। मगर उसे खुशी हुई कि उसने पहचान लिया था, ऑटो से लिच्छवि उतर रही थी। उसने यह भी पहचान लिया था कि उसने नीले
बाँधनी का सूट पहन रखा था। उसे याद आया नीले रंग के कपड़ों में लिच्छवि उसे बहुत
अच्छी लगती थी। वह ‘अलकौसर’ से छ्नकर
आती नीलीरोशनी में उठा और धीरे-धीरे ऑटो की ओर बढ़ने लगा।
“हाय!”
राहुल
ने धीरे से कहा।
“ओ!
हाय!”
लिच्छवि
ने ऐसे चौंक कर कहा मानो वह यहाँ उससे नहीं किसी और से मिलने आई हो और उसे वहाँ
पाकर चौंक गई हो।
राहुल
को थोड़ी-सी राहत इस बात से मिली कि वह अब भी उसकी आवाज़ पहचानता था। वही खनक और
थोड़ा-सा लड़कपन लिए। हाँ, अब वह उतनी बेपरवाह नहीं लग
रही थी। वह थोड़ा निराश हुआ कि उसकी मुस्कुराहट में वह पहचान नहीं थी जो बरसों तक, पाँच बरस तक सिर्फ़ उसके लिए थी।
“मुझे
लग रहा था कि तुम नहीं आओगी” राहुल बोला।
“क्यों
जब कहा था आऊँगी तब ऐसा क्यों लगा?’
राहुल
ने महसूस किया लिच्छवि की आवाज़ में अब पहले वाली हड़बड़ाहट नहीं थी। अब वह काफी सधी
हुई लगती थी।
“यों
ही मुझे लगा शायद काम में फँस गई होगी।” राहुल बोला।
“काम
तो था, लेकिन... ” लिच्छवि वाक्य अधूरा छोड़कर अपने
बालों का रबड़ ठीक करने लगी।
राहुल
कहना चाहता था कि तुम अब भी उतनी सुंदर लगती हो और तुम ठीक कहती थीं हल्का काजल
लगा लेने से तुम्हारी आँखें और भी ज़्यादा सुंदर लगने लगती हैं- एकदम काले पके
अंगूर-सी बाहर को निकलती। पर उसने कहा नहीं। दूरियों के लम्बे बरसों की दीवार बीच
में आ गई थी। उसे याद आया वह सब कहने के लिए तो लिच्छवि से मिलने नहीं आया था। उसे
तो एक काम की बात करनी थी।
इतने
बरसों में राहुल एक ‘प्रोफेशनल राइटर’ बन चुका है। अपने विजिटिंग कार्ड पर यही लिखता। अख़बारों में लिखने से
लेकर रेडियो-टेलीविज़न के छोटे-मोटे कार्यक्रम लिखने वाला राहुल शर्मा बन चुका है।
चैट शो, गेम शो, काउंटडाउन शो लिखने
वाला राहुल शर्मा।
शो-बिजनेस
के छोटे-मझोले निर्माता उसका नाम जानते थे। उसका फोन नम्बर, पेजर नम्बर अपनी डायरी में लिखकर रखने लगे थे। इन दिनों वह एक ‘फिक्शन’ यानी धारावाहिक की तलाश में था। हर
प्रोफेशनल राइटर की असली मंज़िल। वह एक ‘सफल लेखक’ का लेबल लगाना चाहता था अपने ऊपर। अपना एक ‘ब्रांड
नेम’ बनाना चाहता था- राहुल शर्मा।
‘लिच्छवि’ एक ‘टेलीविज़न एंकर’ बन चुकी थी। लेकिन चैनलों की बढ़ती भीड़ में वह जिस चैनल की एंकर पर्सन थी, उस पर बहुत कम दर्शकों का रिमोट ठहरता था।
वह
एक अख़बार में हाई सोसायटी पार्टियों पर कॉलम लिखती थी। हालांकि अंग्रेज़ी के जिस
अख़बार में लिच्छवि का कॉलम छपता था, वह अख़बार भी
ज़्यादा नहीं पढ़ा जाता था।
पर
कम-से-कम राहुल तो उसे पढ़ता ही था। हर इतवार की सुबह वह उस कॉलम को पढ़ता और कई कारणों
से उदास हो जाता। एक यह कि वह कभी लिच्छवि के साथ किसी पार्टी में नहीं गया। तब वे
दोनों पार्टियों में जाते भी कहाँ थे।
शायद
इस कारण भी कि लिच्छवि ऐसी पार्टियों में जाने लगी थी जहाँ जाने का सौभाग्य राहुल
को अब तक नहीं मिला था।
...और
थोड़ा इसीलिए भी शायद कि भले ही लिच्छवी ‘सेलिब्रिटी’ नहीं बन पाई हो अब तक, पर पैसा तो अच्छा कमा ही रही
थी।
ज़िंदगी
की दौड़ में वह उससे इतना आगे निकल चुकी थी कि आज उसे अपनी ज़िंदगी की गाड़ी पटरी पर
लाने के लिए उसकी ज़रूरत आ पड़ी थी। शायद उसे भरोसा था लिच्छवि पर-अपने बीते प्यार
पर।
उसी
की बरसों पुरानी डोर थामकर उसने लिच्छवी को आज ‘अल कौसर’ में डिनर के लिए बुलाया था।
“अल
कौसर तुम्हारी फेवरिट जगह थी... याद है!” राहुल बातों को पीछे ले जाना चाह रहा था।
“हाँ!
पर अब तो टाइम ही नहीं मिलता यहाँ आने का। पर यहाँ-वहाँ पार्टियों में यहाँ के
काकोरी कबाब मिल जाते हैं। वैसे भी यहाँ आना अब ‘इनथिंग’ नहीं रह गया है...।” लिच्छवि ऐसे कह रही थी जैसे उसे किसी जगह न बुलाया
गया हो।
राहुल
को लगा जैसे लिच्छवि उसे छोटा दिखाने के लिए ही ऐसा कह रही है। उसे लगा जैसे उसने
लिच्छवि से मिलकर कोई ग़लती कर दी हो। पर एक उम्मीद थी जिसकी लौ के सहारे वह उससे
मिलने आया था।
“इधर
सुना, तुम्हारा टॉक शो बहुत पॉपुलर हो गया है। मैं
देख तो नहीं पाता पर पीछे कहीं अख़बार में पढ़ा था। वैसे ‘मॉर्निंग
इको’ में तुम्हारा कॉलम पढ़ता रहता हूँ। अच्छा लिखने लगी हो।”
राहुल
को बातचीत का एक सिरा पकड़ना चाहता था। एक ऐसा सिरा जिसके सहारे बीच का ठंडापन ख़त्म
हो सके।
“हाँ, देख तो मैं खुद भी नहीं पाती हूँ। टाइम ही नहीं मिलता... कॉलम तो वैसे ही
है- टाइमपास। थोड़ी-सी गॉसिप हो जाती है- ठीक-ठाक पैसे मिल जाते हैं। वैसे इन दिनों
मैं एक नॉवेल लिख रही हूँ दिल्ली के सोशलाइट लाइफ़ स्टाइल के बैकड्रॉप में लव
स्टोरी होगी। रविदयाल से बातचीत चल रही है...”
और
तुम्हारी कोई ख़बर ही नहीं मिलती। बीच में सुना था कबीर के लिए चंडीगढ़ पर कोई
डॉक्यूमेंट्री लिखी थी तुमने। इनफैक्ट वह खुद ही बता रहा था... कह रहा था ठीक ठाक
लिखता है। पर तुम तो जानते ही हो मेरी हिंदी का हाल... अब तो और बुरी हो गई है...”
बात
का कोई भी सिरा राहुल के हाथ नहीं आ पा रहा था। लग रहा था कि लिच्छवि की आवाज़ किसी
और दुनिया से आ रही हो, जिसे समझने का कोड उसकी
दुनिया में था ही नहीं। यह अहसास और बढ़ता जा रहा था कि वह वाकई इस दुनिया में पीछे
छूट गया है...राहुल कुछ नहीं बोला...चुपचाप अलकौसर का दरवाज़ा खोलकर अंदर घुस गया
और लिच्छवि के आने की प्रतीक्षा करने लगा।
“कोने
वाली टेबल ख़ाली नहीं है। याद है तुम्हें, उस टेबल
के ख़ाली होने की हम कितनी-कितनी देर प्रतीक्षा करते थे।” राहुल धीरे-धीरे खोई आवाज़
में बोल रहा था।
“ओ
हाँ! कहीं और बैठ जाते हैं। मुझे जल्दी जाना है। काबुकी स्टुडियो में रिकॉर्डिंग
है” ...राहुल ने महसूस किया लिच्छवी थोड़ी बेचैन हो गई थी।
लिच्छवि
उस दुनिया में नहीं लौटना चाहती थी। राहुल बार-बार अपनी स्मृतियों की उस दुनिया को
लौटना चाह रहा था। लिच्छवि और अपनी साझी स्मृतियों की दुनिया... पर लग रहा था
लिच्छवि की स्मृतियों में वह दुनिया में वह दुनिया थी ही नहीं।
दोनों
बीच की एक ख़ाली टेबल पर बैठ गए।
“दो
काकोरी कबाब और... तुम अब भी सिर्फ कोक ही पीती हो या...” राहुल ऑर्डर देते-देते
थोड़ा रुक गया।
“मैं
कुछ भी लेती हूँ। वैसे डिनर पर तुमने बुलाया है... जो भी पिलाओगे पी लूँगी।”
लिच्छवि मुस्कुराते हुए बोली।
राहुल
ने लिच्छवि की आवाज़ में पहली बार ऐसा कुछ पाया जो उसे अपना लगा। उसे लगा कि यह सही
मौक़ा है जब अपनी बात शुरू कर देनी चाहिए।
पिछले
हफ़्ते उसने अख़बार में युवा निर्देशक सुकांत के साथ एक डांस पार्टी में लिच्छवि की
तस्वीर देखी थी। उसी अख़बार अख़बार में सुकांत का इंटरव्यू भी छपा था जिसमें उसने
अपने अगले ‘डेली सोप’ के
बारे में बताया था। उसने कहा था उसे लेखकों की नई टीम की तलाश है।
उसे
उम्मीद थी अगर वह लिच्छवि को सुकांत से मिलवाए जाने की बात करे तो शायद उसके करियर
को एक नया मोड़ मिल जाए। लिच्छवि अगर उसकी मदद करे तो वह अपना करियर ग्राफ बदल सकता
है।
“पिछले
हफ़्ते मैंने सुकांत के साथ तुम्हारी तस्वीर देखी थी।” राहुल काकोरी कबाब के टुकड़े
को कोक के साथ निगलते हुए बोला।
“ओ
यस! ही इज़ ए गुड फ्रेंड ऑफ़ माइन। दरअसल, उसी ने
मुझे सिखाया था कि इस माध्यम में अगर बड़ा बनना है तो ब्लैक एंड व्हाइट को ब्लैक
एंड व्हाइट नहीं मोनोक्रोम कहना चाहिए।”
राहुल
ने नोट किया, वह अब भी पहले की तरह जल्दी-जल्दी
खाती है।
“असल
में बात यह है कि सुकांत एक नया डेली सोप बना रहा है और उसे कुछ नए राइटर चाहिए।
तुम अगर... ” राहुल कह तो लिच्छवि से कह रहा था पर देख ऐसे रहा था जैसे अपनी
अनुगूँज से कह रहा हो।
“तो
इसीलिए तुमने मुझे यहाँ बुलाया था... देखो राहुल, मैं
तुम्हें प्रोफेशनली तो जानती नहीं हूँ... और तुम जानते हो इस मीडियम में... एनी
वे... तुम्हें एक काम करना होगा। मैं तुम्हें उसका फोन नम्बर देती हूँ। उसकी बीबी
को ये पसंद नहीं कि मैं उसके घर फोन करूँ। फोन वह मुझे खुद ही करता है। तुम फोन
करके उसे यहाँ बुला लो... कहना मैं बैठी हूँ। चाहो तो कह सकते हो- मैं उसका इंतज़ार
कर रही हूँ... आय ऐम वेटिंग फॉर हिम...”
राहुल
ने महसूस किया लिच्छवि की आवाज़ में अपने ‘कुछ होने’ का अहसास बढ़ गया है।
राहुल
पहली बार इस मुलाक़ात पर शर्मिंदा महसूस कर रहा था। जैसे लग रहा था सफलता की इच्छा
ने उसे आज भिखमंगा बना दिया हो। बातचीत इसी मोड़ पर ख़त्म की जा सकती थी। पर इससे
नुकसान तो उसका ही होता न। या तो वह अपना स्वाभिमान बचा सकता था या अपना करियर।
बरसों की असफलताओं से वह जान गया था कि उसके स्वाभिमान में बचाने लायक कुछ बचा
नहीं है।
“पता
है जब तुम्हारी याद आती है मैं क्या करता हूँ?” राहुल
बातों को कोई मोड़ देना चाह रहा था।
“क्या?” लिच्छवि ने पहली बार राहुल की आँखों में आँखें डालते हुए पूछा।
“मैं
ख़ूब मिठाई खाने लगता हूँ। ...तुम्हें मिठाई खाना बहुत अच्छा लगता था न।” राहुल ने
लिच्छवि की आँखों से अपनी आँखें बचाते हुए कहा।
“मिठाई
तो मैं अब भी नहीं पचा पाती। बहुत फैटी होती है। खैर... तुम सुकांत का नम्बर नोट
करो... इट्स 5142773...”
राहुल
को लगा इस प्यार के खेल को अपने बरसों पुराने झोले में वापस डाल देना चाहिए।
अपने-आपको और गिराने से बेहतर है कि जल्दी से काम निपटाकर लिच्छवि से विदा ले।
राहुल
चुपचाप उठा और रिसेप्शन से फोन करने लगा।
“उसने
कहा है वह पाँच मिनट में आ रहा है” राहुल लौटकर बताया।
“बिल
आ गया है, पैसे हैं या दूँ?” लिच्छवि ने राहुल से पूछा।
“डिनर
पर मैंने तुम्हें बुलाया था...” राहुल पर्स से पैसे निकालने लगा।
लिच्छवि
उठकर बाहर चली गई थी। राहुल भी पीछे-पीछे आ गया।
“तुम्हारे
घर का फोन नम्बर...” राहुल ने वक़्त काटने के लिए लिच्छवि से पूछा।
लिच्छवि
कुछ देर चुपचाप देखती रही। अपनी बार-बार देखी आँखों में अनजानापन लिए।
“पापा
के नहीं रहने के बाद मम्मी आजकल मेरे साथ ही रहती हैं। उन्हें तुम्हारा फोन करना
अच्छा नहीं लगेगा। वह आज भी मेरे बहक जाने का जिम्मेदार तुम्हें मानती हैं। मेरे
इस करियर का...” लिच्छवि अपनी सधी हुई एंकर पर्सन वाली आवाज़ में बोल रही थी।
“ओह!
आय ऐम सॉरी...खैर...तुम्हारे ऑफिस का नम्बर तो है ही।” राहुल ने इस प्रसंग को
समाप्त करते हुए कहा।
सामने
एक काली सिएलो कार रुकी। राहुल ने महसूस किया लिच्छवि की आँखों में किसी की पहचान
चमकने लगी थी। वह तेज़ी से कार की ओर बढ़ गई।
“सुकांत, ये राहुल शर्मा हैं। कॉलेज में मेरे सीनियर थे। कबीर की चंडीगढ़ वाली
डॉक्यूमेंट्री इन्होंने ही लिखी है...” लिच्छवि सुकांत से राहुल का परिचय करवा रही
थी!
“ओ
नाइस मीटिंग यू। सुना था किसी से आपके बारे में। आप कल-परसों फोन करके मेरे पास आ
जाइए... गल्लाँ-सल्लाँ करते हैं” ...सुकांत ने राहुल से हाथ मिलाते हुए कहा।
राहुल
को लगा अब वहाँ ‘फालतू’ बने
रहना अच्छा नहीं। विदा लेनी चाहिए। उन्हें और भी बातें करनी होंगी।
“अच्छा
मैं चलता हूँ...” राहुल ने लिच्छवि से कहा और सुकांत की ओर देखते हुए बोला, “मैं कल दोपहर में आपको फोन करूँगा।”
“ओह
श्योर” सुकांत ने तपाक से बोला। राहुल पीछे मुड़ चुका था।
“फोन
करना... कीप इन टच”, उसने सुना। लिच्छवि की आवाज़
थी।
वह
कुछ नहीं बोला। बस पीछे मुड़कर एक बार लिच्छवि को देखा, हाथ मिलाया और वापस मुड़कर तेज़ी से चलने लगा... वैसे ही जैसे बरसों पहले
आख़िरी बार वह लिच्छवि से जुदा हुआ था।
आगे
अँधेरी सड़क थी, जिस पर गाड़ियों की जलती-बुझती
भागती रोशनी न जाने क्यों उसे अपने गाँव की पगडंडियों की याद दिला रही थी जो रात
में जुगनुओं की जगर-मगर से भर जाती थी।
वह
दूर अँधेरे में गुम हो रहा था।
“कोई
पुराना चक्कर” सुकांत ने गाड़ी का पावर विंडो बंद करते हुए पूछा।
“बताया
न मेरा सीनियर था कॉलेज में... अंड ही वाज आल्वेज वेरी नाइस टू मी... वेरी
हेल्पफुल- अंड आई थिंक बदले में मुझे उसके लिए कुछ करना चाहिए...” लिच्छवि गाड़ी का
एसी ऑन कर चुकी थी।
“शुक्र
है तुम्हें इतना तो याद है कि तुम्हें किसके लिए कितना क्या करना है...” सुकांत गाड़ी
स्टार्ट करते हुए बोला।
दोनों
हँसने लगे। लिच्छवि वही जोरदार हँसी हँस रही थी जिसकी अनुगूँज राहुल की स्मृतियों
में अभी बाक़ी थी। जो इस समय सड़क पर चलते-चलते यही सोच रहा था शायद वैसी ही हँसी
हँस रही होगी।
लिच्छवि
और सुकांत की गाड़ी तेज़ी से उसके बगल से गुज़र गई।
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